दिल इतनी कशाकश से निकल जाए तो अच्छा ये फूल किसी आग में जल जाए तो अच्छा मा'यूब जो लहजे हैं वो मा'तूब न होंगे अपना ही ये अंदाज़ बदल जाए तो अच्छा इंसान को इंसाँ ही कहा जाए तो बेहतर तश्बीह-ए-मह-ओ-मेहर बदल जाए तो अच्छा बे-नूर सितारों की गवाही के बजाए मिज़्गाँ पे कोई अश्क मचल जाए तो अच्छा तरवीज-ए-मोहब्बत के लिए शे'र कहूँगी ये रोग हर इक ज़ात में पल जाए तो अच्छा फ़र्सूदा-रवी ऐसी कि हम ने भी ये सोचा दिल कू-ए-मलामत से निकल जाए तो अच्छा जिस ने कभी मिलने की भी पर्वा नहीं की है उस तक जो 'नसीम' अपनी ग़ज़ल जाए तो अच्छा