भँवर कश्ती डुबोता है समुंदर कुछ नहीं कहता वो होने देता है सब कुछ मुक़द्दर कुछ नहीं कहता लबों को मस्लहत से बंद ही रखता है ये ज़ालिम उधर जलते हैं घर और मेरा रहबर कुछ नहीं कहता गदागर चार पैसे पा के ऊँचा बोलता है अब ज़र-ओ-दीनार रख कर भी तवंगर कुछ नहीं कहता समर तक हाथ न पहुँचे तो बौना ख़ूब रोता है फलों का दान करता है क़द-आवर कुछ नहीं कहता हथेली बोलती है या बता देती है पेशानी सितारे बोलते हैं सब मुक़द्दर कुछ नहीं कहता 'नसीम' इक मो'जिज़ा है सरवर-ए-आलम का दुनिया में अली लेटे हुए हैं और बिस्तर कुछ नहीं कहता