भूल बैठे सारी दुनिया आशिक़ी की ख़ातिर आशिक़ी भी छोड़ दी फिर नौकरी की ख़ातिर मार डाला हर ख़ुशी को ख़ामुशी की ख़ातिर क्या नहीं उस ने किया मेरी हँसी की ख़ातिर मुफ़्लिसी ऐसी अदू को भी न बख़्शे मौला बेचना हो जो चराग़ाँ रौशनी की ख़ातिर जाने कितने लोग गुज़रे मुझ से हो कर भाई मुंतज़िर मैं रह गया इक आदमी की ख़ातिर ज़िंदगी को ज़िंदगी समझा नहीं जाने क्यूँ ज़िंदगी भी जा रही थी ज़िंदगी की ख़ातिर क़ैद करना चाहते थे लोग सूरज घर में मैं लड़ा क्यूँ रौशनी से तीरगी की ख़ातिर ज़ीस्त को भी इक तमाशा ही बना कर रक्खा ऐ 'शफ़क़' क्या तुम ने छोड़ा शाइरी की ख़ातिर