आसूदा दिल में उठने लगा इज़्तिराब क्या इस ज़िंदगी में हो गया शामिल शिताब क्या क़ासिद के हाथ अपना ये पैग़ाम सौंप कर फिर सोचते रहो कि अब आए जवाब क्या उस का है फ़ज़्ल ज़र्रा जो चमके ब-सान-ए-ज़र है वर्ना क्या ये माह भी और आफ़्ताब क्या है नींद से कोई भी तअ'ल्लुक़ नहीं मिरा हर दम ये चश्म-ए-वा में उभरता है ख़्वाब क्या क्या फ़त्ह-याब हो सका है कोई तेग़ से फिर भी है दरमियान-ए-ममालिक ज़िराब क्या होगा जो ए'तिबार तअम्मुल रहेगा क्या कामिल सुपुर्दगी हो तो शर्म-ओ-हिजाब क्या मुमकिन कहाँ हो हाथ में 'नाक़िद' तिरे क़ुरआँ काफ़िर बता है सामने तेरे किताब क्या