भूल जाने को है जहाँ सारा याद रखने को इक ख़ुदा है बहुत है जो पेश-ए-नज़र परे उस से मंज़र इक और दिलरुबा है बहुत गूँजती आहटें नहीं थमतीं मेरे अंदर कोई रहा है बहुत गुमरही से है अपनी ना-वाक़िफ़ रास्तों को वो जानता है बहुत मेरी दीवानगी जलाए चराग़ रौशनी गुम है और हवा है बहुत ये अज़ाबों का सिलसिला कैसा ज़िंदगी ही तो इक सज़ा है बहुत