भूल कर तुझ को भरा शहर भी तन्हा देखूँ याद आ जाए तो ख़ुद अपना तमाशा देखूँ मुस्कुराती हुई इन आँखों की शादाबी में मैं तिरी रूह का तपता हुआ सहरा देखूँ इतनी यादें हैं कि जमने नहीं पाती है नज़र बंद आँखों के दरीचों से मैं क्या क्या देखूँ वक़्त की धूल से उठने लगे क़दमों के नुक़ूश तू जहाँ छोड़ गया है वही रस्ता देखूँ यूँ तो बाज़ार में चेहरे हैं हसीं एक से एक कोई चेहरा तो हक़ीक़त में शनासा देखूँ