बीच समंदर में रहता हूँ By Ghazal << हाँ तेरा मेरा फ़ासला इतना... रहम कर ओ बद-गुमान-ए-आरज़ू >> बीच समंदर में रहता हूँ मौजों पर क़ुदरत रखता हूँ जो कुछ भी कहना होता है सामने रू-दर-रू कहता हूँ औरों की दिल-जूई कर के अपनों के दुख भी सहता हूँ चारों ओर दिशाओं में मैं महकी महकी सुंदरता हूँ पाक पवित्र गंगा जैसी ग़ज़लें और नज़्में लिखता हूँ Share on: