हाँ तेरा मेरा फ़ासला इतना ज़रूर था दिल के क़रीब हो के निगाहों से दूर था सच बोलने की किस में है हिम्मत जो सच कहे सब जानते हैं आदमी वो बे-क़ुसूर था उस ने गिरा दिया था मगर मैं सँभल गया दीवानगी में भी मुझे कितना शुऊ'र था मैं अपने घर में आते ही टुकड़ों में बट गया कितना थका हुआ था बदन चूर-चूर था क्या पूछते हो हाल दिल-ए-ना-तवाँ का अब इक ज़र्रा उस की चश्म-ए-इनायत से तूर था मंज़र तो आफ़्ताब से पहले भी था हसीं कासे में सुब्ह के मिरी रातों का नूर था 'साबिर' ये किस का रात को दीदार हो गया टूटा जो ख़्वाब मुझ में अजब ही सुरूर था