बिछड़ के भी मिला रुस्वाइयों का क़हर तुझे छुपा सका न तिरे आँसुओं का शहर तुझे ये चढ़ती धूप का मल्बूस उतार दे सर-ए-शाम उतरती धूप में अब देखता है शहर तुझे हर एक सैल-ए-सदा को तू कर गया पायाब डुबो सकी न मिरी चाहतों की नहर तुझे बिखरती किरनों को आँगन में थामने वाले मह-ए-तमाम का पीना पड़ेगा ज़हर तुझे तू छोड़ आया जिसे डूबते जज़ीरे में दिखाई देगा वही चेहरा लहर लहर तुझे बदन को तोड़ के बाहर निकल भी आ किसी शब हिसार-ए-जिस्म में जीने न देगा दहर तुझे 'मुसव्विर' उस का मुदावा भी तू ने कुछ सोचा वो रोग जो लिए फिरता है शहर शहर तुझे