जो अहद-ए-नौ में ख़मीर-ए-बशर बनाया जाए सिनाँ को हाथ तो नेज़े को सर बनाया जाए शब-ए-हयात को ऐसे सहर बनाया जाए इक आफ़्ताब सर-ए-चश्म-ए-तर बनाया जाए मिरे हवास को ये कौन हुक्म देता है कि उस को मरकज़-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र बनाया जाए मैं अपने पैकर-ए-ख़ाकी से मुतमइन ही नहीं मिरे ख़ुदा मुझे बार-ए-दिगर बनाया जाए दरून-ए-ज़ात किसी का ये जब्र है मुझ पर उसी को जान उसी को जिगर बनाया जाए सुकून-ओ-राहत-ए-जाँ अब कहीं नहीं मुमकिन तुम्हारे दिल को ही अब मुस्तक़र बनाया जाए जो हम-नफ़स भी हो हमराज़ भी हो हमदम भी उसी को क्यों न भला हम-सफ़र बनाया जाए बहुत ही तंग हैं ये ला-मकाँ के गलियारे सो दश्त-ए-ज़ात को ही रहगुज़र बनाया जाए अगर बनाना ही लाज़िम है कुछ तो ऐ 'ख़ालिद' ख़ुद अपनी ख़ाक को अब के गुहर बनाया जाए