बिच्छा है पलंग आज लब-ए-बाम किसी का तड़पाएगा शब-भर मुझे आराम किसी का चुपके भी रहो 'बहर' न लो नाम किसी का ईमान किसी का है न इस्लाम किसी का निकला तिरे हाथों न कभी काम किसी का पहुँचाया न ताबूत भी दो-गाम किसी का दुनिया से ये नफ़रत है कि अब दिल में यही है मुँह देखें किसी का न सुनें नाम किसी का ये होंठ न बोलें कलिमा बद ये दुआ है ये कान सुनें कोई न इल्ज़ाम किसी का टूटा जो कभी शीशा-ए-मय आई ये आवाज़ उस बज़्म में मा'मूर हुआ जाम किसी का हम क़ैदियों तक बाद-ए-सबा भी नहीं आए पहुँचाए किसी गुल को जो पैग़ाम किसी का दुनिया से सफ़र शबनम-ओ-ख़ुर्शीद के मानिंद है सुब्ह किसी का तो सर-ए-शाम किसी का हम लोगों की जो बात है वो बे-सर-ओ-पा है आग़ाज़ किसी का है न अंजाम किसी का दीवाने हैं वो लोग जो गुल खाते हैं उस पर ग़म-ख़्वार न होगा वो गुल-अंदाम किसी का दुनिया के ख़यालात को दिल में न जगह दें ख़ल्वत-गह—ए-महबूब में क्या काम किसी का है शाइ'रों के दिल का कोई शाहिद-ए-ऐनी मज़मून को हम कहते हैं पैग़ाम किसी का फ़रियाद की ताक़त नहीं हम जाँ-ब-लबों को अब दिल न दुखाए वो दिल-आराम किसी का संदल की न बू जाएगी पीसो कि जलाओ मिटता है मिटाए से कहीं नाम किसी का दुनिया से भी उक़्बा से भी शर्मिंदा रहे हम कुछ हो न सका 'बहर' सर-अंजाम किसी का