बिछड़ गया था कोई ख़्वाब-ए-दिल-नशीं मुझ से बहुत दिनों मिरी आँखें जुदा रहीं मुझ से मैं साँस तक नहीं लेता पराई ख़ुशबू में झिझक रही है यूँही शाख़-ए-यासमीं मुझ से मिरे गुनाह की मुझ को सज़ा नहीं देता मिरा ख़ुदा कहीं नाराज़ तो नहीं मुझ से ये शाहकार किसी ज़िद का शाख़साना है उलझ रहा था बहुत नक़्श-ए-अव्वलीं मुझ से मैं तख़्त पर हूँ मगर यूँ तो ख़ाक-ज़ादा ही गुरेज़ करते हैं क्यूँ बोरिया-नशीं मुझ से उजड़ उजड़ के बसे हैं मिरे दर-ओ-दीवार बिछड़ बिछड़ के मिले हैं मिरे मकीं मुझ से बिखर रही है तप-ए-इंतिक़ाम से मिरी ख़ाक गुज़र रही है कोई मौज-ए-आतिशीं मुझ से मुहाल है कि तमाशा तमाम हो 'शाहिद' तमाश-बीन से मैं ख़ुश तमाश-बीं मुझ से