समंद-ए-ख़्वाब वहाँ छोड़ कर रवाना हुआ जहाँ सुराग़-ए-सफ़र कोई नक़्श-ए-पा न हुआ अजीब आग लगा कर कोई रवाना हुआ मिरे मकान को जलते हुए ज़माना हुआ मैं था कहाँ का मुसव्विर कि पूजती दुनिया बहुत हुआ तो मिरा घर निगार-ख़ाना हुआ उगाओ दर्द की फ़सलें कि ज़िंदगी जागे लहू की फ़स्ल उगाते हुए ज़माना हुआ मैं आईना हूँ हर इक साहिब-ए-नज़र के लिए मगर ख़ुद अपने ही चेहरे से आश्ना न हुआ बिखर गई थी सर-ए-राह ज़िंदगी लेकिन क़दम रुके तो मिरा फ़र्ज़ ताज़ियाना हुआ