बिगड़ के भी मुक़द्दर बन गए हैं कटे शाने मिरे पर बन गए हैं पुराने मक़बरों के ज़ेर-ए-साया नए अंदाज़ के घर बन गए हैं किसी ख़ुशबू की यादों के वसीले सुलगते ऊद-ओ-अम्बर बन गए हैं दुआओं में असर के आते आते दुआ के हाथ पत्थर बन गए हैं क़लम होने की ख़्वाहिश की बदौलत तिरे नेज़े पे हम सर बन गए हैं