बस इसी बात पे वो शख़्स ख़फ़ा है मुझ से शहर में तज़्किरा-ए-रस्म-ए-वफ़ा है मुझ से अक्सर अक्सर वही नाराज़ हुआ है मुझ से जिस को बे-वज्ह सताइश का गिला है मुझ से एक लम्हे को ठहरने की सज़ा मौत भी है तेज़-रौ वक़्त ने अक्सर ये कहा है मुझ से मैं तो हूँ क़ैद इधर अपनी अना के बुत में वो वफ़ाओं का सिला माँग रहा है मुझ से मैं कि ख़ुद राह में भूल आई हूँ असबाब-ए-सफ़र कोई मंज़िल का पता पूछ रहा है मुझ से कोई भी क़ैद-ए-मुसलसल मिरी क़िस्मत में न थी मेरे सय्याद का दिल टूट गया है मुझ से काश बे-रब्त ख़यालों को भी दे पाऊँ ज़बाँ रिश्ता-ए-लफ़्ज़ कहीं टूट गया है मुझ से 'शान' इरफ़ान-ए-नज़र जब से हुआ है हासिल अब कोई पास है मेरे न जुदा है मुझ से