बिगड़ रहे हैं हँसी लब पे आई जाती है अदा भी ऐसी कि दिल में समाई जाती है बढ़ा के रस्म-ए-मोहब्बत घटाई जाती है ख़ता हमारी ही ये भी बताई जाती है निगाह-ए-नाज़ की तासीर उफ़ मआ'ज़-अल्लाह उतर के आँख से दिल में समाई जाती है ये बहर-ए-इश्क़ में कैसे किनारे पहुँचेगी अभी से कश्ती-ए-दिल डगमगाई जाती है गुज़िश्ता रात के सदमे अभी न भूले थे सितम है शाम-ए-मुसीबत फिर आई जाती है ये सच है ज़िद है मोहब्बत को राज़दारी से अयाँ ये होती है जितनी छुपाई जाती है चला है कूचा-ए-क़ातिल में क्या समझ कर दिल ये अपने हाथों से शामत बुलाई जाती है क़रीब आया है शायद बहार का मौसम ये बात क्या है जो वहशत समाई जाती है कहाँ वो लुत्फ़-ओ-मोहब्बत कहाँ ये हालत है हर एक बात पे त्योरी चढ़ाई जाती है मजाल क्या है जो मय-कश कोई बहक जाए ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ हर इक को पिलाई जाती है क़फ़स के सामने होता है ज़िक्र गुलशन का ख़बर बहार की हम को सुनाई जाती है कोई फ़रेब है धोका है चाल है ये भी जो हम से रस्म-ए-मोहब्बत बढ़ाई जाती है सितम-ज़रीफ़ी तो देखो कि साथ वा'दे के क़सम भी झूटी मिरे सर की खाई जाती है इलाही ख़ैर हो मश्क़-ए-ख़िराम होती है क़दम क़दम पे क़यामत उठाई जाती है ख़फ़ा वो बैठे हैं अग़्यार उस पे भरते हैं ये आग और लगी में लगाई जाती है न पूछो बज़्म में 'इशरत' से आरज़ू क्या है ये बात कान में चुपके बताई जाती है