न ये ज़मीन थी जब आसमाँ कहीं नहीं था फ़क़त यक़ीन था हर-सू गुमाँ कहीं नहीं था लगी थी बस्ती में ग़ुर्बत की आग भी कैसी कि लोग जल भी रहे थे धुआँ कहीं नहीं था मिरी किताब में मेरी ही ज़िंदगी थी मगर मिरा ही नाम सर-ए-दास्ताँ कहीं नहीं था मुसाफ़िरों को वहाँ कौन पूछता कि जहाँ थे मेहमान सभी मेज़बाँ कहीं नहीं था शफ़क़ में बिखरे हुए थे ग़म-ए-हयात के रंग ख़ुशी का राह-ए-तलब में निशाँ कहीं नहीं था बस एक दश्त थी हद्द-ए-निगाह तक दुनिया जो आरज़ू में था वो गुल्सिताँ कहीं नहीं था लिपट के रोया था वक़्त-ए-सफ़र जो हम से 'हिना' हम आए घर तो वही मेहरबाँ कहीं नहीं था