बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़ है बाग़बाँ की गर्मी-ए-बाज़ार हर तरफ़ क्या फ़स्ल-ए-गुल फिर आई जो करते हैं ज़मज़मा दाम-ए-क़फ़स में मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार हर तरफ़ कोठे पे उस के फेंकूँ मैं किस राह से कमंद कम-बख़्त पासबाँ तो हैं बेदार हर तरफ़ तोदे जहाँ थे उस के शहीदों की ख़ाक के तीर उस ने मारे नाज़ से दो-चार हर तरफ़ जब उस की बर्क़-ए-हुस्न से पर्दा हुआ है वा ज़ाए हुए हैं तालिब-ए-दीदार हर तरफ़ आशिक़ को उस गली से निकालें थे जब ब-ज़ोर पड़ती थी चश्म-ए-हसरत-ए-दीदार हर तरफ़ दावत है किस की बज़्म-ए-फ़लक में जो कब से हैं आँखें लगाए रख़्ना-ए-दीवार हर तरफ़ साबित बचा न काफ़िर ओ दीं-दार तक कोई तेग़-ए-निगह ने उस की किए वार हर तरफ़ सौदे में जुस्तुजू के तिरी ऐ मता-ए-हुस्न सर मारते फिरें हैं ख़रीदार हर तरफ़ पर्वाज़ का जो शौक़ है बुलबुल के मुश्त पर कुंज-ए-क़फ़स में उड़ते हैं नाचार हर तरफ़ हैराँ हूँ मैं कि किस का ये कूचा है जिस के बीच टुकड़े हुए पड़े हैं तरह-दार हर तरफ़ ग़ौग़ा है शर्क़ ओ ग़र्ब ओ जुनूब ओ शुमाल में फ़ित्ने जगा गई तिरी रफ़्तार हर तरफ़ गो मैं हुआ मुक़ीम तो क्या डर है 'मुसहफ़ी' सैर ओ सफ़र में हैं मिरे अशआर हर तरफ़