बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं मिरी निगाह ने कितने सराब देखे हैं सहर कहें तो कहें कैसे अपनी सुब्हों को कि रात उगलते हुए आफ़्ताब देखे हैं कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें जो मौसम आया है उस के इताब देखे हैं मैं बद-गुमान नहीं हूँ मगर किताबों में तुम्हारे नाम कई इंतिसाब देखे हैं कभी की रुक गई बारिश गुज़र चुका सैलाब कई घर अब भी मगर ज़ेर-ए-आब देखे हैं कोई हमारी ग़ज़ल भी मुलाहिज़ा करना तुम्हारे हम ने कई इंतिख़ाब देखे हैं पनाह ढूँडते गुज़री है ज़िंदगी 'कैफ़ी' झुलसती धूप में साए के ख़्वाब देखे हैं