बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ बहा के ले गई मुझ को कहाँ शुऊर की रौ बना चुका हूँ अधूरे मुजस्समे कितने कहाँ वो नक़्श जो तकमील-ए-फ़न का हो परतव वो मोड़ मेरे सफ़र का है नुक़्ता-ए-आग़ाज़ फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल हुए जहाँ रह-रौ लरज़ते हैं मिरी महरूम-ए-ख़्वाब आँखों में बिखर चुके हैं जो ख़्वाब उन के मुंतशिर परतव भटक न जाऊँ मैं तश्कीक के अंधेरों में लरज़ रही है मिरी शम-ए-एतक़ाद की लौ शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी' हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ