बिखरती ख़ाक में कोई ख़ज़ाना ढूँढती है थकी-हारी ज़मीं अपना ज़माना ढूँढती है शजर कटते चले जाते हैं दिल की बस्तियों में तिरी यादों की चिड़िया आशियाना ढूँढती है यक़ीं की सर-ज़मीं ज़ाहिर हुई उजड़े लहू में ये अर्ज़-ए-बे-वतन अपना तराना ढूँढती है भटकती है तुझे मिलने की ख़्वाहिश महफ़िलों में ये ख़्वाहिश ख़्वाहिशों में आस्ताना ढूँढती है तिरे ग़म का ख़ुमार उतरा अधूरी कैफ़ियत में ये कैफ़िय्यत कोई मौसम पुराना ढूँढती है बिखरता हूँ जुदाई की अकेली वुसअतों में ये वीरानी मिरे घर में ठिकाना ढूँढती है मिरी मिट्टी सजाई जा रही है आँगनों में ये रस्तों पर तड़पने का बहाना ढूँढती है