आँसुओं में कभी ढली है रात दर्द बन के कभी उठी है रात कोई सूरज कहीं से आ जाए कितनी वीरान हो गई है रात सुब्ह से हम-कलाम होने को ज़ीना ज़ीना उतर रही है रात फिर उजालों का ख़ूँ हुआ शायद क़त्ल-गाहों में बट गई है रात दिल में कोहराम कम न होगा 'असर' तुम भी सो जाओ सो गई है रात