बिखेरूँ रंग ख़ुशबू को मसल दूँ मिले जो फूल चेहरा नोच डालूँ जवाँ हो कर भी बच्चों की सी आदत खिलौनों से अभी तक खेलता हूँ समुंदर में हूँ मौज-ए-मुज़्तरिब सा मगर सहराओं जैसी प्यास रख्खूँ वो मुझ में ढल रहा है और मैं उस में ख़ुद अपना सा कोई लहजा टटोलूँ मिज़ाज-ए-गुल-परस्ती गुदगुदाए शमीम-ए-गुल पे उस का नाम लिक्खूँ