बीमार हैं तो अब दम-ए-ईसा कहाँ से आए इस दिल में दर्द-ए-शौक़-ओ-तमन्ना कहाँ से आए बेकार शरह-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी से फ़ाएदा जब तू नहीं तो शहर में तुझ सा कहाँ से आए हर चश्म संग-ए-किज़्ब-ओ-अदावत से सुर्ख़ है अब आदमी को ज़िंदगी करना कहाँ से आए वहशत हवस की चाट गई ख़ाक-ए-जिस्म को बे-दर घरों में शक्ल का साया कहाँ से आए जड़ से उखड़ गए तो बदलती रुतों से क्या बे-आब आईनों में सरापा कहाँ से आए सायों पे ए'तिमाद से उकता गया है जी तूफ़ाँ में ज़िंदगी का भरोसा कहाँ से आए ग़म के थपेड़े ले गए नागन से लम्बे बाल रातों में जंगलों का वो साया कहाँ से आए 'नाहीद' फैशनों ने छुपाए हैं ऐब भी चश्मे न हों तो आँख का पर्दा कहाँ से आए