बिन तिरे ज़िंदगी होगी न बसर लगता है

बिन तिरे ज़िंदगी होगी न बसर लगता है
तुझ से इक पल भी बिछड़ जाऊँ तो डर लगता है

तुम जो रहते हो मिरे साथ तो ये ख़स्ता मकाँ
टूटा फूटा हुआ जैसा भी है घर लगता है

ये कभी अशरफ़-ए-मख़्लूक़ हुआ करता था
अब तो ये आदमी कहने को बशर लगता है

ये जो आँगन है ये बाज़ार तक आ पहुँचा है
अब मिरा घर भी तो इक राहगुज़र लगता है

जिस की बुनियाद में इख़्लास-ओ-मोहब्बत हो रवाँ
फिर उसी पेड़ पे ख़ुशियों का समर लगता है

मेरी हर बात पे तुम को जो यक़ीं है 'साहिल'
इस क़दर सादा-मिज़ाजी से भी डर लगता है


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