मा'नी-ओ-मफ़्हूम क्या हों इश्क़ के मज़मून में जिस तरह कोई ख़याल आए दिल-ए-मजनून में इश्क़ से होती है इस शिद्दत की गर्मी ख़ून में खौलता है जैसे दरिया दोपहर को जून में जिस्म में रग रग फड़क उठती है सोज़-ए-इश्क़ से गर्म-ए-तुग़्याँ जिस तरह अमवाज हों जैजून में हुस्न से वाज़ेह हुई है मा'नविय्यत इश्क़ की शामिल-ए-मफ़्हूम है उन्वान भी मज़मून है यूँ तो हैं अज्ज़ा बहुत से शामिल-ए-तरकीब-ए-इश्क़ आरज़ू लेकिन सर-ए-दारू है इस माजून में इस तरह हूँ क़ैदी-ए-हालात 'बिस्मिल' जिस तरह शेर हो पिंजरे में या शाह-ए-ज़फ़र रंगून में