नहीं मा'लूम पाएँगे सुकूँ अहल-ए-जहाँ कब तक ख़ुदा जाने रहेगा इस ज़मीं पर आसमाँ कब तक ये अफ़्साना अभी तो ज़ेर-ए-उनवान-ए-करम भी है सुनाए जाऊँ मैं उन के सितम की दास्ताँ कब तक क़फ़स में तो मुझे जब तक भी रहना हो मगर यारब तसव्वुर में मिरे जलता रहेगा आशियाँ कब तक ज़मीर आलूदा-ए-बातिल ज़बाँ आज़ुर्दा-ए-ना-हक़ तिरी महफ़िल में रह कर हम मिलाएँ हाँ में हाँ कब तक ग़ज़ब है ठेस लगना इश्क़ की ख़ुद्दार फ़ितरत को बस ऐ चश्म-ए-करम अब इल्तिफ़ात-ए-राएगाँ कब तक दिल-ए-मायूस में कुछ ख़ार-ए-हसरत से खटकते हैं ख़ुदा जाने रहेंगी राख में चिंगारियाँ कब तक नहीं जब पास-ए-वादा तो मुकर भी जाओगे इक दिन बदल जाएगा जब दिल तो न बदलेगी ज़बाँ कब तक कभी उम्मीद की नज़रों से देख अपनी तरफ़ 'बिस्मिल' निगाह-ए-यास से देखेगा सू-ए-आसमाँ कब तक