ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है वो सादा-लौह हमें चाहता अभी तक है फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है शुरू-ए-इश्क़ में हासिल हुआ जो देर के बअ'द वो एक सिफ़्र तह-ए-हाशिया अभी तक है हुलूल कर चुकी ख़ुद में हज़ार नक़्श ओ रंग ये काएनात जो ख़ाका-नुमा अभी तक है तवील सिलसिला-ए-मस्लहत है चार तरफ़ यक़ीन कर ले मिरी जाँ ख़ुदा अभी तक है