ब-सत्ह-आब कोई अक्स-ए-ना-तवाँ न पड़ा हवा गुज़र भी गई और कहीं निशाँ न पड़ा बड़े सुकून से देखा है जलते लम्हों को हमारी आँख में वर्ना धुआँ कहाँ न पड़ा कठिन भी ऐसा न था मेरी तेरी सुल्ह का काम कोई भी शख़्स मिरे तेरे दरमियाँ न पड़ा हुए हैं ख़ाक ख़मोशी के दश्त में खो कर हमारे कान में ही शोर-ए-कारवाँ न पड़ा बला की धूप है 'जाफ़र' किसी को होश नहीं पड़ा है अब्र का साया कहाँ कहाँ न पड़ा