बुज़दिली सी कहाँ ये मरती हैं मुश्किलें हौसलों से डरती हैं अश्क आते हैं जब नदामत के मेरी आँखें बहुत निखरती हैं काट दो हाथ इन हवाओं के जो चराग़ों का क़त्ल करती हैं करनी पड़ती हैं पहले तदबीरें फिर कहीं क़िस्मतें सँवरती हैं ख़्वाहिशें मुफ़लिसों के सीने में रोज़ जीती हैं रोज़ मरती हैं सब्र की हद में रहना पड़ता है आयतें यूँ कहाँ उतरती हैं ढलती उम्रों की लड़कियाँ 'शाकिर' आइना देखने से डरती हैं