बुझा बुझा सा गुल-ए-तर दिखाई देता है अजीब शहर का मंज़र दिखाई देता है मैं जिस के वास्ते फूलों का हार लाया हूँ उसी के हाथ में ख़ंजर दिखाई देता है ये शहर-ए-शीशागराँ को ख़बर नहीं शायद हर एक हाथ में पत्थर दिखाई देता है यक़ीन कैसे करूँ ग़ैर की मोहब्बत का कि अपना भाई सितमगर दिखाई देता है क़लम उठाने का जिस को अभी शुऊ'र नहीं वो आदमी भी सुख़नवर दिखाई देता है निगाह डाली है जब से मिरे मसीहा ने बुलंदियों पे मुक़द्दर दिखाई देता है तुम्हारी बज़्म में तारीकियाँ हैं क्यों 'अंजुम' फ़लक पे चाँद सा दिलबर दिखाई देता है