बुझा चराग़ हवाओं का सामना कर के बहुत उदास हुआ हूँ दरीचा वा कर के सुकूत टूट गया और रौशनी सी हुई शरार संग से निकला ख़ुदा ख़ुदा कर के खुला न दिन को किसी इस्म से वो आहनी दर अब आओ देखते हैं रात को सदा कर के उड़ूँगा ख़ाक सा पहले-पहल और आख़िर-ए-कार हवा-ए-तुंद को रख दूँगा मैं सबा कर के वो जिस के बोझ से ख़म भी न थी हमारी कमर हम आज आए हैं वो क़र्ज़ भी अदा कर के