मुझे ऐ हम-नफ़स अंदेशा-ए-बर्क़-ओ-ख़िज़ाँ क्यूँ हो मिरी पर्वाज़ महदूद-ए-फ़ज़ा-ए-गुलसिताँ क्यूँ हो जुनूँ की वुसअ'तों पर तंग है अर्सा दो-आलम का जो सज्दा हो तो फिर सज्दा ब-क़ैद-ए-आस्ताँ क्यूँ हो मिरे काम आ गई आख़िर मिरी काशाना-बर-दोशी शरार-ओ-बर्क़ की ज़द पर भी मेरा आशियाँ क्यूँ हो ग़म-ए-दिल भी जो रुस्वा-ए-मज़ाक़-ए-आम हो जाए तो फिर इन दास्तानों में हमारी दास्ताँ क्यूँ हो प्यालों की खनक से भी जहाँ दिल टूट जाते हैं वहाँ छाया हुआ हर बज़्म पर ख़्वाब-ए-गिराँ क्यूँ हो न मैं जाँ-दादा-ए-साक़ी न मैं वारफ़्ता-ए-मुतरिब अगर महफ़िल से उठ जाऊँ तो महफ़िल बद-गुमाँ क्यूँ हो मैं जिस आलम में हूँ अपनी जगह ऐ 'शोर' तन्हा हूँ जुदा हो जिस की मंज़िल वो रहीन-ए-कारवाँ क्यूँ हो