बुझा सा रहता है दिल जब से हैं वतन से जुदा वो सेहन-ए-बाग़ नहीं सैर-ए-माहताब नहीं बसे हुए हैं निगाहों में वो हसीं कूचे हर एक ज़र्रा जहाँ कम ज़े-आफ़्ताब नहीं वो बाग़-ओ-राग़ के दिलचस्प-ओ-दिल-नशीं मंज़र कि जिन के होते हुए ख़ुल्द मिस्ल-ए-ख़्वाब नहीं वो जूएबार-ए-रवाँ का तरब-फ़ज़ा पानी शराब से नहीं कुछ कम अगर शराब नहीं ब-रंग-ए-ज़ुल्फ़ परेशाँ वो मौज-हा-ए-रवाँ कि जिन की याद में रातों को फ़िक्र-ए-ख़्वाब नहीं समा रहे हैं नज़र में वो महव-शान-ए-हरम हरम में जिन के सितारे भी बारयाब नहीं वतन का छेड़ दिया किस ने तज़्किरा 'अख़्तर' कि चश्म-ए-शौक़ को फिर आरज़ू-ए-ख़्वाब नहीं