यही सोचते हैं अक्सर कहाँ आ गए ख़ुशी में कि ये दिन गुज़र रहे हैं जो हिसार-ए-बे-ख़ुदी में ये सफ़र है आरज़ू का यहाँ धूप-छाँव भी है कभी दिल में रौशनी है कभी दिल है रौशनी में वही देंगे अब उजाला तिरे क़ल्ब बे-ख़बर को जो चराग़ जल उठे हैं मिरी शाम-ए-ज़िंदगी में मुझे ए'तिबार-ए-उल्फ़त तुम्हें है यक़ीन मेरा कोई मिल सका न तुम सा मुझे सारी ज़िंदगी में तिरे साथ है कुछ ऐसा मिरी जुरअतों का आलम कोई डर है ज़िंदगी में न है ख़ौफ़ कोई जी में तिरा नाम पढ़ रही हूँ तिरा नाम लिख रही हूँ मैं तुझे समो रही हूँ मिरे ज़ौक़-ए-शाइ'री में मिरी ज़ात को सजाने कोई आइना न देना मिरा हुस्न जल्वा-गर है अभी 'ताज' सादगी में