बुझने न दो चराग़-ए-वफ़ा जागते रहो पागल हुई है अब के हवा जागते रहो सज्दों में है ख़ुलूस तो फिर चाँदनी के साथ उतरेगा आँगनों में ख़ुदा जागते रहो अल्फ़ाज़ सो न जाएँ किताबों को ओढ़ कर दानिश्वरान-ए-क़ौम ज़रा जागते रहो कैसा अजीब शोर है बस्ती में आज-कल हर घर से आ रही है सदा जागते रहो पहले तो उस की याद ने सोने नहीं दिया फिर उस की आहटों ने कहा जागते रहो फूलों में ख़ुशबुओं में सितारों में चाँद में खोलेगा कोई बंद-ए-क़बा जागते रहो तुम भी सुनो कि शहर-ए-ख़मोशाँ में रात दिन सन्नाटे दे रहे हैं सदा जागते रहो जब भी क़लम को मेरे कभी आईं झपकियाँ आँखों ने आँसुओं से लिखा जागते रहो 'मंसूर' रतजगे तो मुक़द्दर हैं आप का जब तक जले सुख़न का दिया जागते रहो