बुझी है धूप रहमत की घटा आवाज़ देती है सुनो रहमान को ख़ल्क़-ए-ख़ुदा आवाज़ देती है बहुत मुख़्लिस है सादा-दिल है सब को जान से प्यारा वो मरकज़ पर है उस को हर दिशा आवाज़ देती है सितम सह कर भी जो ईमान पे क़ाएम रहें उन की ज़बानें कट भी जाएँ तो वफ़ा आवाज़ देती है बदन में नूर है जिस का वही आगाह करता है ज़रा सी भूल हो तो आत्मा आवाज़ देती है धुआँ ऐसा कि आँखें खोलना मुश्किल हुआ जाए लहू की आग भड़की है हवा आवाज़ देती है यहाँ पर रौशनी वाले भी आ कर सहम जाते हैं दरख़्तों पर सियाही है बला आवाज़ देती है अदब की पैंतरे-बाज़ी से दिल उक्ता गया 'पारस' तअ'ल्लुक़ मुंक़ता' कर लूँ अना आवाज़ देती है