बुलंद अज़्म हो गया परों में काट आ गई हवा तो और ताएरों की हिम्मतें बढ़ा गई खिलेगा दिल का फूल भी ज़रा सा इंतिज़ार कर अभी ये जाँ-फ़ज़ा ख़बर सबा मुझे सुना गई हिसार-ए-ज़ात से परे जहान एक और है मुझे ये वुसअत-ए-नज़र नया उफ़ुक़ दिखा गई बनाए थे जो आरज़ू ने साहिलों पे बैठ कर तमाम रेत के वो घर बस एक मौज ढा गई हमें तो ख़ौफ़ था यही कि ख़ाक कर न दें कहीं लगी जो आग इश्क़ की तो आईना बना गई पराए आँचलों में वो तो छाँव ढूँढता रहा इधर हवा-ए-बे-रहम रिदा मिरी उड़ा गई चलो कि कल मिलेंगे फिर ये क़िस्से कल पे छोड़ दो ज़मीं पे क़ुमक़ुमे जले फ़लक पे रात छा गई जो 'नुसरत' आज खो गई उदासियों में दो घड़ी गुमान सब को ये हुआ ग़मों से मात खा गई