बुरे इंसाँ को बद-कारी का महवर खींच लेता है कि जैसे-तैसे दरिया को समुंदर खींच लेता है भरे बाज़ार में उस शख़्स को संगसार कर देना गले से अपनी बीवी के जो ज़ेवर खींच लेता है क़दम मेरे निकल पड़ते हैं जब गुमराह रस्तों पर मुझे क़ुरआन की जानिब तिरा दर खींच लेता है मैं अपने बीवी बच्चों में कहाँ से प्यार बाँटूँगा लहू मेरे बदन का जबकि दफ़्तर खींच लेता है मिरे महबूब की तहरीर से है किस क़दर मानूस ख़तों के ढेर से वो ख़त कबूतर खींच लेता है जहाँ ग़ुर्बत बिलकती है जहाँ मासूम रोते हैं मिरी ग़ज़लों का शहज़ादा वो मंज़र खींच लेता है जवानी थी तो मन-मानी का तूफ़ाँ था तबीअ'त में बुढ़ापे में क़दम रक्खा तो बिस्तर खींच लेता है 'अमीन' एहसास तेरा डूबता है जब तख़य्युल में समुंदर के किनारे ही से गौहर खींच लेता है