बुताँ जब कि ज़ुल्फ़-ए-दोता बाँधते हैं गिरह में दिल-ए-मुब्तला बाँधते हैं नहीं बनती बुलबुल से अपनी चमन में हम अब आशियाना जुदा बाँधते हैं जफ़ा खींचेंगे पर न हारेंगे जी को ये हम तुम से शर्त-ए-वफ़ा बाँधते हैं गिरह दे के सर पर जो बालों का जूड़ा ये नाज़ुक-बदन ख़ुश-अदा बाँधते हैं हर इक तार में उस के दिल-हा-ए-उश्शाक़ बहम जम्अ' कर के मिला बाँधते हैं मियाँ हाल-ए-'मक़तूल' देखा नहीं क्या कमर आप किस पर भला बाँधते हैं