बुतों को किबरियाई क्यूँ न आई ख़ुदा हो कर ख़ुदाई क्यूँ न आई मिज़ाज-ए-यार रंगीं था मिरे काम मिरी रंगीं-नवाई क्यूँ न आई वफ़ा भी दिलरुबाई का है अंदाज़ तुम्हें ये दिलरुबाई क्यूँ न आई जो तुम ने सीख ली ग़ैर-आश्नाई मुझे दुश्मन की आई क्यूँ न आई वफ़ादारी ज़रा तुम क्यूँ न सीखे हमें कुछ बेवफ़ाई क्यूँ न आई मुझे बाद-ए-सबा से ये गिला है बराए दिल-कुशाई क्यूँ न आई हमारी दास्तान-ए-दर्द सुन कर उन्हें रिक़्क़त न आई क्यूँ न आई शब-ए-ग़म की न सूरत देखती मैं अजल रोज़-ए-जुदाई क्यूँ न आई