चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं वर्ना ये हाथ गरेबान से कुछ दूर नहीं सज्दे करने से मिटा ख़त्त-ए-जबीं ऐ ज़ाहिद हम कहे देते हैं क़िस्मत में तिरी हूर नहीं मोहतसिब माने-ए'-इ'ल्लत है गुमान-ए-मय से सूँघने को भी मयस्सर मुझे अंगूर नहीं लब तक आई थी शिकायत कि मोहब्बत ने कहा देख पछताएगा ख़ामोश ये दस्तूर नहीं रात दिन नामा-ओ-पैग़ाम कहाँ तक होंगे साफ़ कह दीजिए मिलना हमें मंज़ूर नहीं तुम ने दी कोहकन-ओ-क़ैस से मुझ को निस्बत कोई दीवाना नहीं मैं कोई मज़दूर नहीं क्या करे 'दाग़' कोई उस की मोहब्बत का इलाज वो कलेजा ही नहीं जिस में ये नासूर नहीं