चार जानिब से सदा आई मिरी शो'बदा बन गई तन्हाई मिरी मौत को जब से मुक़ाबिल देखा ज़िंदगी हो गई शैदाई मिरी अब भी यारान-ए-गिरफ़्ता-दिल को याद है अंजुमन-आराई मिरी लब-कुशाई से मिली रिफ़अत-ए-दार किस बुलंदी पे है गोयाई मिरी रात फैली तो सर-ए-ख़ल्वत-ए-ग़म बे-कराँ बन गई तन्हाई मिरी सुब्ह चमकी तो ग़ुबार-ए-शब से बे-मुहाबाना सदा आई मिरी उम्र भर मेरा मुख़ातिब वो था बात जिस को न समझ आई मिरी दिल-ए-नादाँ ने डुबोया 'मोहसिन' काम कुछ आई न दानाई मिरी