चारासाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वक़्त-ए-रफ़ू रोने लगा जी भर आया दीदा-ए-सोज़न लहू रोने लगा बस कि थी रोने की आदत वस्ल में भी यार से कह के अपना आप हाल-ए-आरज़ू रोने लगा ख़ंदा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर ने दिल दुखाया और भी जिस घड़ी टूटा कोई तार-ए-रफ़ू रोने लगा सदमा-ए-बे-रहमी-ए-साक़ी न उट्ठा बज़्म में जी भर आया देख कर ख़ाली सुबू रोने लगा था अदम में खींच लाया आब-ओ-दाना जब यहाँ देख कर बेचारगी से चार सू रोने लगा आ गया काबे में जब मेहराब-ए-अबरू का ख़याल बैठ कर 'तस्लीम'-ए-ख़स्ता क़िबला-रू रोने लगा