कई दिनों तक जब अपने कमरे से हम न निकले तो लोग समझे कभी किसी को बहुत सताते हैं ये उजाले तो लोग समझे बदल गए जब किसी की ग़ुर्बत में आज रस्ते तो लोग समझे था जाना स्कूल काम पर क्यों गए वो बच्चे तो लोग समझे हदफ़ पे मुँह-ज़ोर आंधियों के फ़क़त हमारे चराग़ कब थे बिखर गए जब किसी घरौंदे के सारे तिनके तो लोग समझे कोई न माने कराहतें जब बता रही थीं कि वक़्त कम है जब उन के काँधों पे आख़िरी हम सफ़र को निकले तो लोग समझे जो वक़्त पर ही न काम आएँ तो दोस्त क्या हैं अज़ीज़ क्या हैं किसी दुकाँ पर नहीं चले जब ये खोटे सिक्के तो लोग समझे हैं भीड़ में भी हम आज तन्हा ये अज्नबिय्यत की ढूँढ क्या है उड़े धुएँ में नए तअ'ल्लुक़ पुराने रिश्ते तो लोग समझे जिसे समझते हैं शाइरी हम सफ़र मुसलसल है ख़ुशबुओं का ग़ज़ल की शाख़ों पे ख़ूबसूरत जो शहर महके तो लोग समझे न दीन पर हैं अमल हमारे न फ़िक्र कोई समाज की है तरह तरह के जब आज हम पर अज़ाब उतरे तो लोग समझे ग़म-ओ-ख़ुशी भी तो इक नशा है सँभलना आसाँ नहीं है 'ख़ालिद' बिना पिए भी क़दम हमारे जो आज बहके तो लोग समझे