चढ़ा हुआ है जो सूरज वो ढल भी सकता है हवा-ए-वक़्त का रुख़ तो बदल भी सकता है ख़मोश लब है जो दरिया तो ख़ैर है सब की बिगड़ गया तो वो बस्ती निगल भी सकता है चलो ऐ तिश्ना-लबो हम उठाएँ दस्त-ए-दुआ' कि आसमान दुआ से पिघल भी सकता है मनाओ जश्न मुकम्मल बहार आने पर अभी नया सा है मौसम बदल भी सकता है वो फूल जैसा बदन चाँदनी से है डरता कि चाँदनी में बदन उस का जल भी सकता है तुम्हें तो शौक़ है फूलों के साथ रहने का हमारा अज़्म जो काँटों पे चल भी सकता है है आसमाँ की बुलंदी में घर 'ज़फ़र' जिस का ज़मीं की हद से वो बाहर निकल भी सकता है