नई राहों पे चलना चाहता है ज़माना फिर बदलना चाहता है ये बादल क्यों परेशाँ कर रहे हैं अगर सूरज निकलना चाहता है ज़माना तंग हो जाता है उस पर वो जब ख़ुद को बदलना चाहता है भड़कती है ग़रीबी आग बन कर ख़ुशी से कौन जलना चाहता है गिराते हैं उसे हालात उस के अगर कोई सँभलना चाहता है 'ज़फ़र' अब शाम की चादर तो ओढ़ो थका सूरज है ढलना चाहता है