चढ़ते तूफ़ान को साहिल से गुज़रना था मियाँ रीत के घर को बहर-हाल बिखरना था मियाँ कब तलक पाँव को तोड़े हुए बैठा रहता राह-ए-दुश्वार से रह-रव को गुज़रना था मियाँ इतने मानूस थे सय्याद से जाते न कहीं क़ैद में पर न परिंदों के कतरना था मियाँ जब न समझे तो फिर अब छेड़ के पछताना क्या चश्म-ए-नमनाक में उब्ला हुआ झरना था मियाँ इश्क़ के गहरे समुंदर में गए क्यूँ 'अनवर' उथले पानी में अगर डूब के मरना था मियाँ