ग़म-ए-हयात के पेश-ओ-अक़ब नहीं पढ़ता ये दौर वो है जो शेर-ओ-अदब नहीं पढ़ता कोई तो बात है रूदाद-ए-ख़ून-ए-नाहक़ में कहीं कहीं से वो पढ़ता है सब नहीं पढ़ता किसी का चेहरा-ए-ताबाँ कि माह-ए-रख़्सशंदा जो पढ़ने वाला है क़ुरआँ वो कब नहीं पढ़ता वो कौन है जो तुझे रात दिन नहीं लिखता वो कौन है जो तुझे रोज़-ओ-शब नहीं पढ़ता वो अब तो इस क़दर इज़हार-ए-हक़ से डरता है अगर लिखा हो कहीं लब तो लब नहीं पढ़ता न जाने इन दिनों क्या हो गया है साक़ी को निगाह-ए-रिन्द में हुस्न-ए-तलब नहीं पढ़ता उसी का रंग है 'अफ़सर' उसी की ख़ुश्बू है मिरा कलाम कोई बे-सबब नहीं पढ़ता