चाह के उलझे हुए रिश्ते को सुलझाने चले उलझनें हद से बढ़ीं तो दिल को बहकाने चले पी गया तिश्ना-दहानी में ख़ुदा जाने मैं क्या क्यों रसीली आँख से वो आग भड़काने चले आइना जौहर से ख़ाली हो तो आईना नहीं इस ढले चेहरे पे क्या तुम हुस्न चमकाने चले सरगुज़िश्त अपने फ़साने की कहूँ क्या ऐ नदीम मुंसिफ़ी फिर उठ गई जब ख़ुद वो समझाने चले मो'जिज़ा इस माजरा-ए-दिल का अब तो मान लो सब हुए मुश्ताक़ जब हम कह के अफ़्साने चले ग़म हो या राहत किसी से दिल बहलता ही नहीं जब न कुछ भी बन पड़ी तो ख़ुद को फुसलाने चले राह में काँटे बिछाए थे जिन्हों ने आज क्यों बाग़ में देखा तो हँस कर फूल बरसाने चले राज़-ए-दिल कुछ पा गए 'दीवान' साहिब वर्ना तो किस ख़ुशी में वो हमारे रंज-ओ-ग़म खाने चले